सेंटा दादा

“सामान्य कद-काठी,रंग-रूप, हष्ट पुष्ट वृद्ध व्यक्ति की अति शीघ्र आवश्यकता है, आज ही संपर्क करे, मुक्ता फर्म्स रायपुर।”

रिटायर सुधाकर जी कई वर्षों से नौकरी ढूंढ रहे थे पर काम था कि कही मिला ही नही। बुढ़ापे में अपने एकलौते होनहार जवान बेटे प्रीतम को खोने का गम और सालों से बिस्तर पर पड़ी बीमार पत्नी की सांस उनकी ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति के साथ विदा हो गई थी।

उनकी परिस्थितियों ने उनके जीवन से ‘उत्साह’ नाम का शब्द मिटा दिया था, आसपास सन्नाटा था पर भीतर जैसे एक अनवरत चलता शोर उन्हें दिन-रात विचलित करता रहता, उसे नियंत्रित करने में असमर्थ वे उस घुटन में जीने मजबूर हो गए। सच पूछो तो वे उस नकारात्मकता से घिरी चार दिवारी के भीतर बस एक दिन मरने के लिए जी रहे थे।

अपनी डिग्री और वर्क एक्सपीरियंस को कभी दर किनार ना करने का उनका असुल आज सुधाकर जी को चकमा दे उनका मन इस इश्तहार को पढ़ वहां जाने राजी करने लगा।

“एक बार देखने में क्या हर्ज है?” और वे अपने बरसों पुराने वफादार स्कूटर से धूलभरी चादर हटाकर उसकी हवा-पानी, तेल चेक कर उस सर्द मौसम की गुनगुनाती धूप,चहचहाती चिड़ियों के मधुर संगीत बीच मध्यम स्पीड पर निकल पड़े। 

वे पते पर पहुंचे पर आश्चर्य की बात थी कि उनके अलावा वहा कोई नहीं था। उन्हें अनुमान लगाया की शायद वो काम किसी और को मिल गया होगा और वे जाने लगे।

“दादा सुनिए! आप यहां किसी काम से आए थे?” एक 35 से 40 साल की युवती ने मुस्कुराते पूछा। उसे देख उन्हें एकाएक प्रीतम की याद आई जो वो आज जीवित होता तो इतनी ही उम्र उसकी भी होती।

“बेटी वो आज के अखबार में इश्तहार आया था, खैर मैं निकलता हूं।”

“नमस्ते मैं शशी हूं, उस इश्तिहार को पूछने वाले आप पहले व्यक्ति हैं, क्या आप ये काम करना चाहेंगे?” शशि अपने सुभाव अनुसार फिर मुस्कुराते पूछने लगी।

“जी बिल्कुल”

“तो फिर ठीक है! हमारे पास समय बहुत कम है, आप जल्दी से तैयार हो जाए,यह रहा आपका एडवांस।”

” पर काम क्या है?”

” काम कुछ नहीं है बस आप आज मासूम चेहरों को मुस्कुराहट से भरेंगे।” शशी उन्हें भावपूर्ण पांच सौ रुपए और सांता क्लॉज के कपड़े, सफेद दाढ़ी टोपी, लाल जूते और एक छोटी सी घंटी बजाकर देते हुए मुस्कुरा खुशी-खुशी दरवाजा अटकाकर चली गई। 

“सुधाकर!! एक बार काम क्या है पुछतो लेना था!! अब ये दिन आ गए हैं कि मुझे बच्चों के लिए सेंटा बनना पड़ेगा धत्त!! अब मैं हां का ना भी नहीं बोल सकता। पैसे भी थमा दिए! मुरझाया क्या खील खिलाएगा ? रोता क्या मुस्कुराएगा?” वे कमरे के भीतर परेशान हो यहां वहां चलते बड़बड़ाने लगे।

कुछ क्षण बाद शशी खटखटाते भीतर आई और उन्हें सिर से पर तक देख वह बस आनंदित हो मुस्कुराने लगी। 

“बहुत खूब आप तो बिल्कुल जीवंत सेंटा लग रहे है” वे झेंपते उस भेषभूषा में जैसे ही कमरे से निकले, फर्म के सभी कर्मचारी का ध्यान उनकी और आकर्षित हो उठा और वे उन्हे निहारने लगे।

शशी की तारीफ,बाकियों की प्रतिक्रया देख वे कुछ मुस्कुराए जरूर और गाड़ी की पिछ्ली सीट में जाकर बैठ गए। शशी ने भी सोचा शायद इस अवतार में और उसके साथ बैठने असहज महसूस कर रहे हो।

“हम वैसे जा कहां रहे हैं?”

“यहां एक अनाथालय है वही, वैसे आपके परिवार में कौन-कौन है?”

“मैं अकेला हूं और आप?”

“मैं भी, मां-बाप समय से पहले गुजर गए, शादी के दो साल बाद पति का स्वर्गवास हो गया तब मैं पेट से थी। उनके जाने का गम भूला न पाई और बच्चा भी,,”

“बेटी आप बहुत हिम्मत वाली है, इतना सब खोने के बाद आप हमेशा मुस्कुरा कैसे लेती है? खोया तो मैंने भी सब कुछ है मगर मेरे लिए आप जैसा रहना नामुमकिन है।”

“दादा मैं उम्र में आपसे बहुत छोटी हूं मगर अपने अनुभव की बात कहू तो ये जिंदगी दो तरह की होती है। एक तो जिसे हम पाने की लालसा कर दुखी होते रहते हैं और दूसरी जो हम हकीकत में जीते हैं। “

” पर दुख तो दोनों जिंदगी में हमारा पीछा करता रहेगा।”

” जिंदगी है तो यह सब तो चलता रहेगा ना! हम जितनी जल्दी वर्तमान को अपनाकर जीने लगे तो सच मानिए हमारे दुख कम होते चले जाएगें। मेरी बात आजमा कर देखिएगा।” शशी आगे कहती है।

“इन बच्चों ने तो अभी जीना भी शूरू नही किया,उनकी एक-एक की जिंदगियां उठाकर पढ़ेंगे तो उनके सामने हमारे दुख राई बराबर भी नही है”

सुधाकर जी शशी की कही बातें ध्यान से सुन आत्म चिंतन कर शांत हो गए। उनकी वार्तालाप अब एक लंबी चुप्पी में परिवर्तित हो गई। शशी को संदेह हुआ कि दादा ने उसकी बात बुरी मान ली और कुछ क्षण बाद वो हिचकते हुए कहती है।

“देखिए बातों-बातों में हम आश्रम भी पहुंच गए।” उनकी गाड़ी की आवाज सुनते ही अति उत्साहित हो कुछ दौड़ते,कुछ वैसाखियों से, कुछ घुटनों के बल रेंगते हुए अनेकों बच्चे अपनी दीदी को गाड़ी से उतारकर अपने नन्हें हाथों से मुख्य द्वार पर ला पूछते हैं। 

“शशी दीदी हमारा सरप्राइज कहां है?” वे उसे चारों तरफ से घेर कौतूहल से उसके उत्तर की प्रतीक्षा करते अपनी निर्दोष आंखों से निहारने लगते हैं। 

शशी की नजर कार की पिछली सीट पर जा दादा को ठूंठ ने सरपट घुमती है जहा अब उनका नामोनिशान नही था। उसे अंदेशा हुआ कि कही वे इस बीच उतरकर वापस तो नही चले गए। मैंने भी उन्हें कितना कुछ ज्ञान दे दिया!! अब बच्चों को क्या कहू?

” कोई बात नही चलो हम अभी भीतर चलते है।” सभी बच्चों के उत्साहित चेहरे एकाएक मायूसी से भर गए और वे निराश हो भीतर जाने लगे।

,,कि तभी,,

उनके कानों में मिठी घंटी की टनटनाहट के साथ ” हो हो हो!!” कहते किसी को सुना, वे बच्चे अपनी शशी दीदी को संदेहास्पद रूप से खिलखिलाकर देखने लगे और उनकी दीदी ने उन्हें मुस्कराते पीछे पलटने का इशारा किया।

घुटनों के बल बैठे अपनी दोनों बाहें फैलाकर, मस्ती भरी मुस्कान लिए उन्होंने एक संता को अपनी ओर अभिवंदन करते पाया और वे सभी अपनी दीदी का हाथ छोड़कर अपने संता की गोदी में जा लपके।

“मैरी क्रिसमस मेरे प्यारे बच्चों!!” दादा ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते कहा। फिर उसके बाद जो उन्होंने बच्चों के साथ हंसते,गाते,नाचते,उधम करते रंग जमाते समा बांधा है कि उन्हें देख नॉर्थ पोल में बैठे रियल सेंटा भी शर्मा गए।

प्रकाश से अंधेरा आज कुछ जल्दी हो गया पर बच्चों का मन अपने सेंटा दादा से भर ही नही रहा था। इस वादे के साथ कि वे उनसे मिलने हमेशा आते रहेंगे उन्हें तभी वहा से जाने दिया गया।

वे लौटने निकल पड़े, 

पर उस सफर में पुराने सुधाकर जी कही छुट चूके थे,

और आज यीशु मसीह के जन्म दिवस पर उनका भी नया जन्म हुआ। अब वे आज को अपनाकर इन बच्चों के साथ प्यार का सागर बन, खुशहाली की आशा और हरदम खुश रहने की सीख देते जिने लगे।

आपकी,

रुचि पंत