अपने सबसे छोटे बेटे रतन का दाह संस्कार कर घर लौटकर उसकी मुस्कुराती तस्वीर को नम आंखों से निहारते एक टक देखते रहे, कहने को तीन संतानों के पिता पर वर्तमान में निस्संतान हो चुके गिरधारीलाल का आज अपने गहरे दुःख में अति दुखी होना स्वाभाविक था।
” वर्मा जी के यहा से खाना आया है, खा लीजिए आपकी दवाई का भी समय हो रहा है।” बीना उनके करीब बैठ उनका हाथ थपथपाकर कहा, अपने बच्चों को खो चुकी बीना भीतर-भीतर टूट चुकी थी मगर अगर दोनों ही इस कष्ट कारी परिस्थिति में बिखर गए तो एक-दूसरे को संभालने वाला कौन होगा?
” ना खाने का, ना ही दवाई लेने का मन है, लगता है अब मेरे भी प्राण निकल जाए तो ईश्वर से जा पूछूंगा कि आखिर क्यों उन्होंने हमारे साथ ऐसा किया? “
“संभाले अपनेआप को, इन सब में ईश्वर का क्या दोष? वह न्याय प्रिय है, ऐसा ना कहे”
” क्यों ना कहू? मुझे जीने की कोई वजह नहीं दिखती, जिन तीनों के खुशहाल भविष्य के लिए हमने अपनी पूरी जिंदगी झोंक दी, मैं मानने को कैसे तैयार हो जाऊं कि वे अब हमारी यादों में ही जिवित रहे गए है?”
“जो होना था सो वो हो गया। हिम्मत रखिए अपने स्वास्थ्य की चिंता करिए। उन तीनों के साथ जो भी हुआ हम उन सबके लिए खुद को कबतक दोषी ठहराते रहेगे?” बीना की कोख उसके बुढ़ापे में जाकर उजडी थी, जिस पडाव पर उन्हें सहारे की आवश्यकता थी वो अब अकेले रह गए थे।
खुद को सम्भालने की कोशिश बीच गिरधारीलाल कहते है कि,” बीना, अपरोक्ष रूप में गलती हमारी ही थी, वे तो अपने आसपास बदलते आधुनिक माहौल की प्रतिक्रिया के शिकार हो अपने विवेक का बिना इस्तेमाल किए उन परिस्थितियों में बह गए, उपर से अपनी मूल संस्कृति को भूलाकर बहुत बड़ी भूल कर गए।”
“26 की उम्र में रमेश को जिम करते वक्त हार्ट अटैक आया था। इसमें हमारा क्या दोष? देखा जाए तो वो पहली बार अपने स्वास्थ्य के लिए सजक हो रहा था जो कि अच्छी बात थी,,”
“,,और वही उसकी सजा बन गई।” गिरधारी लाल बीना की बीच बात पर बोलते है।
“पर कैसे?”
” उसने जब से होश संभाला था, ना उसके कोई सोने का समय था ना उठने का,और ना ही खाने पीने की किसी प्रकार की सजगता थी। और तो और इतने बरस किताबें छोड़कर कभी टहलने या दोस्तों के साथ खेलने तक नहीं गया।”
” जिन्दगी से जुड़े कितने प्रश्न पूछा करता था वो और हम हर बार पढ़ाई पर ध्यान देने कह उसकी जिज्ञासा अधूरी छोड़ देते थे पर उसके खुद के प्रति लापरवाह होने से उसके इतनी छोटी उम्र में हार्ट अटैक आने का क्या संबंध है?”
” सीधा-सीधा संबंध है! उसकी कभी कोई शारीरिक गतिविधि नही थी ना बरसों से पौष्टिक खाना शरीर में लगा था और दूसरों के छरहरा बदन देखकर जो ईर्षा उसके मन में पैदा हुई थी कि क्या कहे। अचानक बॉडी बनाने का शौक उसे भारीभरकम वजन और ह्रदय पर तनाव बढ़ाने वाली एक्सरसाइज कराता चला गया। उसका हृदय एकाएक होते ऐसे परिवर्तन के साथ कैसे तालमेल बैठा सकेगा भला? मैंने उससे कहा भी था कि तुझे जिम के बजाए योग अभ्यास करना चाहिए पर उसने मेरी बात आउटडेटेड कह हंसी में टाल दी, जो बात मानता तो शायद वो हमारे पास होता।”
“हमें इन सबकी कोई महत्त्वता ही कहा थी? जिन चीजों का प्रयास हम खुद नहीं करते तो कैसे उन्हें अच्छी आदतें डालने प्रोत्साहित कर पाते, हमें बस उसके अच्छे नम्बर से मतलब था जो वो ला रहा था।”
“आपको कितनी आशाएं थी उससे पर मैं मानती हूं सुनिधि और रतन पर हमें और ध्यान देना था। “
“सुनिधि के मामले में पूरी गलती हमसे हुई थी। “
” उसने इतना कठोर कदम क्यों उठाया मेरी समझ के परे है।”
” उसकी शादी के लिए उसके जन्म के साथ पैसा जोड़ते रहे और पढ़ाई बीच में ये सोचकर छुड़वा दी कि शादी करके उसे सम्भालना तो चौका चूल्हा ही है।”
” मुझे याद है उस दिन कितना रोई थी वो, हमारी मैरिट आने वाली बच्ची को और पढ़ना था पर हमने उसे घरेलू काम सिखाने ज्यादा अहमियत दे घर बैठा दिया।”
“अगर वही दहेज हम उसकी उच्च शिक्षा में लगाते तो उसे स्वावलंबी बनने से कोई रोक नही पाता, क्या कमाल कर जाती वो! “
” उसकी नियति खराब थी जो ऐसे लालची ससुराल वाले मिले। सारे पैसे डकार गए और हमारी बेटी उनकी यातनाए झेलकर घर लौट आई। “
“मानता हूं, पैंशन कम है मेरी पर दो रोटी कम खाकर उसे पाल सकते थे। उसे सुसाइड नोट पर ये लिखकर फांसी कभी नही लगानी थी कि “मैं खुदको अपने मा-बाप पर बोझ बनती नही देख सकती।” अगर सुनिधि अपने पैरों पर खड़ी होती तो तुम्हीं सोचो क्या वो ऐसा कदम उठाती? बल्की कमाई करती और हमारे साथ खुशी से रहती क्यों है कि नही? “
“आप सही कह रहे है पर रतन का तो हम कुछ कर ही नही पाते। सारा दिन कमरे में अपने मोबाइल के साथ क्या करता रहा वो तो हमें उसके चले जाने के बाद भी नही समझ आया ।”
” दो बार बिना हेलमेट के अपने दोस्तों संग हूर्रा गाड़ी चलाते मरते मरते बचा था वो। शुक्ला जी आज भी हुए उस रोड एक्सीडेंट में अपने बेटे को खोने का दोषी रतन को मान रहे हैं।”
” आजकल के बच्चे जो जी में आए बिना विवेक का इस्तेमाल कर करते है। एक बार भी नही सोचते की उन चंद लम्हों के आनंद के बदले वो अपने परिवार को जीवन भर की सजा दे जाएंगे। “
“सहमत, रतन की मौत के पहले वो दिनोंदिन परेशान दिखाई देता था, मैनें कई बार पूछा तो कोई जवाब ही नही।”
” कहा से कौन उसके साथ अश्लील बातेंकर ब्लेकमेल करने लगा कि उसने बिना विवेक के ऐसा कदम उठा लिया।”
” आज की पीढ़ी अपना कीमती जीवन संवारने के बजाए मोबाइल के भीतर कही खोकर जीती रहती है पर जब इस दुनिया का वास्तव में सामने करना पड़ता है तो वे इतने कच्चे रह जाते है कि खुद को किसी समस्या के सामने सम्भाल ही नही पाते और लड़ने से पहले आसानी से हार मान लेते है।”
“रतन जब सही समय था तो समय बरबाद करता रहा और जब काम करने का वक्त आया और कुछ करने की चाह जगी तो हर तरफ से निराशा मिली। अपना समय गुजारने मोबाइल में व्यस्त रहता और किसी ने झांसे में आकर फंस गया।”
” वो विवेकहीन कुंठित हो लाइव जाकर मौत को अपने गले लगा अपना सामाधान ठूंठ लेगा किसे पता था।” बीना का गला भर आया।
“हमसे आखिरकार गलती कहा हो गई? हम अपनी हैसियत से ज्यादा उनके लिए खर्च करते रहे। किस चीज की कमी की? अपनी इच्छाओं को मारकर उनकी अच्छे स्कूल में एडमिशन, कपड़े, ट्युशन, गाड़ी, मोबाइल, घुमने फिरने की आजादी की पूर्ति अपने खुद के शौक मार मार कर करते रहे और हमें मिला क्या? चलिए उन्हें क्या मिला? “
” उन्होंने हमसे इन सभी की कभी मांग नही की थी, ये तो हम थे जो अपने विवेक से उन्हें देते चले गए। अगर,,अगर इन अनुपजाऊ चीजों के बदले बस एक कार्य कर जाते तो हमारे घर में ये विपदा कभी ना आती। बाकी जो उनके भ्रमण पोषण कि बात थी वो अपनी हैसियत से करते ही।”
” कौन से काम की बात कर रहे हैं? ऐसा क्या छूट गया हमसे?”
” इस बात का एहसास मुझे कई सालों से हो जरूर रहा था मगर उस राह पर चलने बहुत देर हो गई।,,हमने उन्हें और खुदको इस बदलते जमाने में जिंदगी के उतार-चढ़ाव के सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर देने वाले हमारे बहुमुल्य धार्मिक ग्रंथों को उपयोगहीन समझकर दूर रखने की बहुत बड़ी भूल की और उसकी भरपाई आज हमारा पूरा परिवार भोग रहा है। “
“जो बचपन में घुट्टी के साथ-साथ उन्हें रामायण महाभारत की सीख भी नियम से पढ़ाई होती तो आज वे हमे अफसोस के आंसू रोते ना छोड़कर कुछ और ही उभरकर निकलते हमारे बच्चे।”
गिरधारी लाल और बीना एक दूसरे का हाथ थामकर अपने से कि हुई उचित समय पर उचित विवेक ना लगाने की भूल के कारणवश एक के बाद एक उनका दामन छुड़ाकर विदा होते अपने युवा बच्चों के शोक में डूबकर विलाप करते रह गए।
पाठकों, मेरी ये रचना काल्पनिक जरूर हो सकती है मगर ये आज के कई परिवारों की वास्तविक सच्चाई है। भारत का भविष्य कहलाने वाले हमारे अधिकतर नौजवानों से मेरी युवा दिवस पर यही प्रार्थना है कि वे अपने स्वास्थ्य को लेकर सजग हो। रोड पर खुदकी सेफ्टी की चिंता अपने मोबाइल की स्क्रीन से ज्यादा करें। अपना अति महत्वपूर्ण समय पूरी निष्ठा के साथ अपनी पढ़ाई, कुछ नया सीखने की कला में और अपने परिवार वालों के साथ बैठकर चर्चा करते गुजारे। इंटर्नेट में बेफिजूल समय बर्बाद करने और अपचरित लोगों के बहकावे में आने से बचे। अंत में, अपने घर के मंदिर में विराजित आपका इन्तेजार करती, कदम-कदम पर पथप्रदर्शन करने वाले ग्रंथों को अपनी जीवनी का हिस्सा बनाकर रखे और अपने भीतर कमाल होता देखने तैयार रहे।
आपकी,
रुचि पंत