मुन्नी की फुलझड़ी

” माँ देखो, मैनें इन दियो पर हरा रंग रच दिया तो कैसे निखर उठे,, वो बड़े दिये भी दे दो उन्हें भी रंग-बिरंगे कर देती हूँ, देखना इस साल हमारी बहुत अच्छी बिक्री होगी और फिर तुम मेरे लिए इस बार फुलझड़ी पक्का खरीद पाओगी।”

शांता मुन्नी की अधूरी लालसा से अवगत थी। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में इन तीज-त्यौहारों के सीजन पर दिये खरीदने ग्राहक तो कई आते थे, पर हर किसी के मोलभाव करने की फितरत शांता को मजबूरन कम मूल्य पर बेचने विवश कर जाती। उसे फायदा तो दूर,उसकी माल की लागत भी न निकल पाती।

बढ़ती महंगाई का सामना जब एक गरीब करता है तो वो उस फन मारते सांप से बिना लड़े अपनी हार मान, खुद को तीलतील कर मरने छोड़ देता है।

“ये ले और इनमें अपना पसंदीदा गुलाबी रंग रच देना  तब तक मैं तेरे बाबा को दवाई लगाकर आती हूं।” 

हाथ गाड़ी चलाते दौरान उसके पति को पीछे से आती किसी बेशकीमती गाड़ी में बैठे शहजादे ने ठोकर मार दी, इलाज का खर्चा उठाना या इंसानियत के नाते अस्पताल तक पहुंचाना तो दूर वो उसकी कमाई का जरिया और हाथ पैर कुचलकर वहां से नौ दो ग्यारह हो गया।

शांता उनके बिस्तर पकड़ लेने के बाद दूसरो के घर कामकर अपना घर जैसे तैसे पाल रही थी। उसे मुन्नी के साथ-साथ खुद भी इस दिवाली से बहुत आशाएं थी कि उसके दिये उसके सोचे भाव में बिक जाएंगे और साथ ही एक डर भी सता रहा था कि इस साल भी अगर मोलभाव करते ग्राहक मिले तो इस दिवाली पर भी मुन्नी की फुलझड़ी की एकमात्र ख्वाहिश दरकिनार करने के अलावा उसके पास कोई चारा न बचेगा।

” दिये ले लो दिये ले लो, सुंदर-सुंदर दिये ले लो!!”  गोल बाजार की सड़क किनारे एक मटमैली चादर पर अपने दीये सजा वो आते-जाते राहगीरों को पुकारती रही।

एक के बाद एक लोग दियो को निहार उनके भाव पुछ आगे बढ़ते चले गए,  इक्का दुक्का लोगों को छोड़ बताएं रेट पर किसी ने उन्हे नहीं खरीदा और देखते देखते शाम ढ़लने लगी,कमाई के नाम पर उसके हाथ अभी भी खाली ही थे और हर्ष और उल्लास का ये त्यौहार अपनी दस्तक जल्द देने वाला था। क्या इस बार की दिवाली भी मुन्नी की बिना फुलझड़ी जलाए मनेगी?

शांता यही सोचती रह गई, इन दियो को खरीदने आने वाले लोग आज ही आएंगे, कल से बाजार में न इतनी रोनक होगी न इन दियो को पूछने वाला बा मुश्किल ही कोई होगा, जो भी हो किसी भी हाल में उसे खरीदार ढूंढना ही होगा।

अपनी बाजारीकर लौटते लोगों से वो दरख्वास्त करने लगी। इसी बीच एक चमचमाती लाल गाड़ी जिसके पिछले कांच पर एक सुनहरी चिड़िया बनी हुई थी उसमें से एक सेठानी को उतरे देख शांता उन्हें अपने पास आने का आग्रह करने लगी।

“दीदी एक नजर देख तो लीजिए।”

“कैसे दिए?” उन्होंने अपनी अमीरी की अकड़ दिखाते कहा।

” दीदी छोटे वाले पांच के, बड़े 10 और ये गुलाबी 20 के, बताइए कितने देदू ?”

” अरे नहीं नहीं ये तो तुम बहुत महंगा बता रही हो।”

” दीदी कम ही लगाकर कह रही हूं।”

महलों में रहने वाले क्या जाने कि उनके घरों को जगमग करते इन दियो को बनाने एक कुमार का अच्छा खासा परिश्रम लगता है। मिट्टी शहर से मिलो दूर स्थित तालाब से ठोकर लानी पड़ती है, पानी में भीगोकर, छन्नी से धंटो साफ करके, बांधकर रखना पड़ता है, तत्पश्चात वो मिट्टी दिये बनाने योग्य बनती है और उतना ही श्रम मिट्टी से दिए को रूप देने में लगते है।

” दीदी! इसमें मैंने अपनी मेहनत भी नहीं जोड़ी, ले लीजिये ना,आप जो भाव कहेगी लगा दूंगी।”

“ठीक है, ये लो साठ रुपये और गुलाबी वाले पांच बांध दो” उसे सामान सस्ती दर पर बेचते सुन एक के बाद एक लोगों की लाइन लग गई। देखते-देखते सारे दिये बिक तो गए पर बहुत नुकसान के साथ।

” मां मेरी फुलझड़ियां ले आई। “

“नहीं मुन्नी, दुकानदार की सारी फुलझड़ियां बिक चुकी थी, तुम चिंता ना करना मैं तुम्हें कल लाकर जरूर दे दूंगी।”

” ठीक है मां” और शांता ने मुन्नी को जल्दी सुला दिया जिससे वो अपनी झुग्गी की कुछ दूरी पर स्थित तीन-तीन मंजिला घरों की कॉलोनी में रहने वाले लोगों की रातभर चलती आतिशबाजियों की आवाज़े ना सुन पाए। आखिर इस साल भी वही हुआ मुन्नी की दिवाली बिना फुलझड़ी जलाए गुजर गई।

शांता खुशी के इस पर्व पर अनवरत चलती पटाखों की गड़गड़ाहट बीच गुमसुम होकर, मां लक्ष्मी को अर्पित अपने बुझते हुए दीपक को देख उसके नेत्रों से एकाएक अश्क झलक उठे। उन आंसुओं को पोछते वो यही सोचती रही कि मोलभाव का चाबुक, उन जैसे कितने ही विवश गरीबों की खून-पसीने की महनत, कभी हक से उनकी खून-पसीने की कमाई में परिवर्तित होने कितनी बाध्य करती है, जो सही दाम मिल जाते तो ये उत्सव उनका भी कहलाता।

यह बात हम जैसे गरीब तो समझते हैं पर काश बड़े-बड़े मॉल के दुकानदार जब उनका ₹1 भी कम नहीं करेंगे ये जानते हुए भी वही खरीददार हमारे साथ निष्पक्ष क्यों नहीं रहते?

सुबह के 5:00 बज गए और एक-एक कर प्रकाश का ये महोत्सव आकाश में धुएं की लहर बन शांत हो गया।

शांता अपनी हवाई चप्पल पहन अपना झोला लिए उन बड़ी कॉलोनी के ओर चल पड़ी। उन विभिन्न अनगिनत महंगे जल चुके पटाखे से पटी रोड पर पसरे बारूद बीच,वो अधजले पटाखे पाने की चाह लिए यहां से वहां घूमती रही,

“यहां मत ढूंढ यहां के कोई बिनकर ले जा चुका हैं, उस तरफ जा वहा कुछ मिल जाएंगे” संगमरमर से सुसज्जित उस आलिशान धर की चौकीदारी करते उस युवक ने उसे देख कहा, शायद वो भी उसकी मंशा के पीछे छुपी उसकी बेबसी जान सकता था।

वो आगे की ओर बढ़ी और उस बीच उसकी नजर उस लाल गाड़ी पर पड़ी जिसपर सुनहरी चिड़िया बनी हुई थी। शांता जिज्ञासा से उस घर पर सजे सभी दिये ढूंढने लगी और उसकी आंखे उनके घर के आंगन पर अबतक जलते, मुन्नी द्वारा रंगे उन गुलाबी दियो को देख संतुष्टी से जरूर भर गई।

शांता घर पहुंची और उसकी आहट पाते ही अति उत्साहित मुन्नी उठकर उसका झोला खोल उसे टटोलने लगी।

“देख तेरे लिए ना केवल फुलझड़ियां बल्कि कितने सारे और पटाखे लाई हूं ”  मुस्कुराती शांता उसके सर पर हाथ फेरती हुई कहती है। मुन्नी उन अधजली फुलझड़ियां, आधे अनार, टूटे रॉकेट और मुट्ठी भर चुटचुटी बम देख मां को गले लगा खुशी से उछलने लगी।

तंगहाली में भी जो अपने जीवन में मुस्कुराहट बिखेरे उन्हें किसी उत्सव की जरूरत नही,
मुश्किलें तो उनकी है, जो सब सुख-सुविधा होने के बाद भी यहां एक पल को खुश नहीं

आपकी,
रुचि पंत