“ज्योति कहा रह गई!!” परेश ने घर के फाटक को एक साथ कई बार खटखटाते हुए आवाज लगाई।
” जी आई”
” ये लो मां जगदम्बा मंदिर का प्रसाद” बरसों से माँ के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाला परेश नियम से ऑफिस उपरांत माँ के दर्शन कर ही घर लौटा करते थे। ज्योति उनके हाथ से प्रसाद लेने बढ़ ही रही थी कि, उसने अपना मुँह चढ़ाकर कहा,
” कुछ अक्ल है, पहले चप्पल उतारो”
” पर मैनें तो पहनी ही नही”
” तो तो,, हाथ धोकर आओ और सिर पर पल्ला रखो” ज्योति अपना सिर ढंककर प्रसाद की थैली ले उसे खाली कर प्लेट में रखने लगी और पीछे-पीछे बात बात पर अपनी मर्दानगी झाड़ते परेश घर के भीतर गुस्साए घुसने लगा।
“तुम्हें इतने भी संस्कार नहीं की पति मंदिर के दर्शन करके आया है, तो उसके पैर छु आशीर्वाद ही ले लो” ज्योति जैसे ही झुकने लगी उसने अपने पैर पीछे कर इतराते हुए कहा।
” तुम्हे क्या लगता है कि अपने परमेश्वर के टोकने के बाद पैर छुने से क्या माता रानी तुमसे प्रसन्न हो सकती है? निर्लज्ज! यहा सामने से हठ और फटाफट खाना लगा” इसी बीच उसकी नजर बिखरे घर पर पड़ी।
“ये घर है कि कबाड़खाना!!” बच्चों के खिलौने अपने पैर पर पढ़ते उसे लात मार वो ज्योति पर तिलमिला उठा।
” हमारी इस विषय पर कई बार बात हो चुकी है कि घर आप तेह करेंगे”
अपने बच्चों को खाना परोसते हुए वो शांतिमय हो कहती हैं जो अपने इरादों में शैल की तरह मजबूत थी।
” एक तो दिन भर ऑफिस का काम करो, तुम क्या सोचती हो कि घर आकर मैं ये दो पैसे का काम करुंगा? तुम्हें घर बैठे काम ही क्या होता है, कभी बाहर निकली हो? जाने दो मैं भी किस ग्वार के मुँह लग रहा हूँ”
“ठीक है पड़े रहने दीजिए ऐसे ही।” ज्योति के माथे पर लगी अर्द्ध चंद्र की बिंदी से निकलता विलक्षण तेज उसकी आँख से आँख मिलाते हुए कहता है। उसे ज्योति की बातों का कोई उत्तर ना सूझा और वो बड़बड़ते कमरे के भीतर चला गया।
ज्योति ब्रह्मा जी के सिखाए संयम और नियम के रास्ते चलने समर्पित थी, वो बिना उत्तेजित हो अपने इरादों पर कायम रही। उसने ठान लिया था, वो इतने से काम के लिए ही सही उन्हें एहसास दिलायेगी कि घर के काम में एक मर्द की हिस्सेदारी करना उनका फर्ज है कोई पाप नहीं।
” मम्मी, मैंने अपने खिलौने समेटे थे पर छोटी ने सब फिर से फैला दिए, मैं क्या करता? सॉरी आपको मेरी वज़ह से डाट पड़ी ”
ज्योति को उसकी मासूमियत पर मां कूष्मांडा जैसी मंद हंसी आई, जिनकी मुस्कान ने चारों ओर फैले अंधकार को मिटाकर अपनी ऊर्जा से सृष्टि का सृजन किया था।
अंधकार तो उसके जीवन में भी आया, जब औरत की इज्जत ना करने वाले माता के भक्त के साथ उसने सात फेरे लिए।
परेश का रवैय्या स्त्री के प्रति ऐसा क्यो है ज्योति उसपर सवाल नहीं उठाती,
ये कोई उनकी दो दिन की सीख नही थी जिसे वो सहजता से बदल पाती
पर अपने बच्चों की सही परवरिश तो उसके हाथों में है ना? उसे परेश को देखकर इस बात की ग्रहणशीलता होती थी कि बच्चों को मात्र पैदा कर, लिखा-पढा, कमाने लायक तैयार करना तबतक निरथक है जबतक उन्हेें उनके जीवन से होकर गुजरते हर इंसान खासतौर से एक स्त्री के किये निस्वार्थ समर्पण के प्रति सम्मान ना पैदा कर सके और वे भी बाकियों की भाँति उन्हे सिर्फ घर की कालीन तक सीमित समझे।
“कोई बात नही” युग अपने पिता की तरह नही ठल रहा था, इस बात कि उसे बहुत संतुष्टी होती, वो उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरती रही।
आलौकिक कात्यायनी माँ हो या धरती की साधारण माँ,
सभी माँऔ का धर्म ही होता है सृष्टि पर सकरात्मक बदलाव लाना।
” मम्मी आप चिंता न करे मैं पापा के आने के पहले सब ठीक कर दूँगा।”
” पहले मेरी गोद में कुछ देर बैठ तो जा” ज्योति स्कंध माता बन अपने कार्तिक को स्नेह दे युग का मन मोहने लगी।
” मम्मी पापा आते ही होंगे मैं नहीं चाहता वो तुमपे बेवजह गुस्सा हो”
” ठीक है जा मेरे लाल”
ज्योति खासतौर से युग पर उसके छुटपन से अपनी जिम्मेदारियों का परिचय करवाते बहुत तप किया करती क्योकि वो नही चाहती थी कि उसकी अपनी गृहस्थी बसने पर घर के काम करने अपने पिता की तरह उसका भी अहम आड़े आए और उसकी पत्नी को एक असहयोगी पति मिलने का दुख आजीवन सताते रहे।
” ये क्या हो रहा है!! कामचोर अपने बच्चे से काम कराती है! युग आज के बाद मम्मी का कहा कुछ सुनने, मानने की जरूरत नही।”
” तो क्या आप इसे अपनी तरह बनाना चाहते है!! ” मात्र यह कहते ज्योति माँ कालरात्री के स्वरूप में आ गई ।
” पापा, इस घर में मम्मी अकेली नही रहती, ये घर हम सबका है, इसलिए हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने स्तर पर उनको सहयोग दे।” युग ये कह अपने खिलौने समेटने लगा।
अपने बेटे को इतनी सी उम्र में इतनी बड़ी बात कहते सुन, ज्योति के हृदय में उसकी छवि जान और युग को अपने जैसे अपनी पत्नी के साथ व्यवहार करते भविष्य की सोचकर परेश के भीतर रक्तबीज नामक वो अहंकार एक पल में ध्वस्त होने लगा।
” तुमने सही कहा ये घर सबका है।” और वो युग का हाथ बंटाने साथ अपने पूर्वसंचित पापकर्म समाप्त करने वाली माँ महागौरी से प्राथना करने लगा।
” चलिए देर से ही सही” ज्योति मुस्कराते हुए परेश की कायापलट देख अचंभित हो कहती है।
जैसे मां सिद्धिदात्री की अनुकंपा से भगवान शिव को सिद्धियां प्राप्ति हुई थी, उसी तरह आज ज्योति के कारण उसे अपनी सदियों की कि हुई गलतियों पर गिलानी हुई और उनके घर सब कुशलमंगल हो गया।
माँ तो साक्षात घर-घर में मौजूद है,
क्या घर की देवी को यहा पुजता कोई है?
मन्दिरों में मां की अराधना करते तो सभी है
क्या औरतो की इज्जत यहा करता कोई है?
यहा हर एक इंसान मां से हजार मनोकामनाएं भले मांगता हो
है कोई यहा? जो अपनी स्त्री के मन की एक भी मानता हो?
आपकी,
रुचि पंत